बलिया। त्योहार आया, विभाग जागा — यह परंपरा बन चुकी है। जैसे ही रक्षाबंधन या दीपावली जैसे पर्व पास आते हैं, खाद्य सुरक्षा विभाग की गाड़ियाँ सरकने लगती हैं, कैमरे चमकते हैं, मिठाइयाँ जब्त होती हैं, और ‘नमूने जांच के लिए भेजे गए’ की रट लगाई जाती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मिलावटखोरी सिर्फ त्योहारों में होती है? नहीं! सच्चाई ये है कि मिलावट इस सिस्टम में रच-बस गई है — और खाद्य विभाग की चुप्पी भी उसी का हिस्सा बन चुकी है।
बलिया के बैरिया बाज़ार में आप किसी भी दिन चले जाइए — ठेले-ठेले पर नकली छेना, बर्फी और रसगुल्ले बिकते हुए दिख जाएंगे। इनकी कीमत — ₹100 से ₹200 किलो! क्या शुद्ध दूध से बनी मिठाई इतनी सस्ती हो सकती है? हरगिज़ नहीं! लेकिन इन नकली उत्पादों के खिलाफ कोई सुनवाई नहीं होती, कोई कार्रवाई नहीं होती।
शिकायतें की जाती हैं, साक्ष्य दिए जाते हैं, लेकिन खाद्य विभाग आंखें बंद करके बैठा रहता है। लगता है मानो विभाग को सिर्फ साल में दो बार 'एक्टिव मोड' में आने की छूट है — वह भी मीडिया की सुर्खियों के लिए, ताकि ‘कार्यवाही हो रही है’ का दिखावा किया जा सके।
और जब कार्रवाई होती भी है, तो सिर्फ "नमूने लिए गए, जांच रिपोर्ट आएगी" तक बात सीमित रह जाती है। लेकिन वह रिपोर्ट कब आएगी? उसमें क्या मिला? किस पर क्या कार्रवाई हुई? — यह सब गोपनीय रह जाता है। क्यों? क्या जनता को जानने का हक़ नहीं है?
सच यह है कि नमूने भेजने की प्रक्रिया अब एक 'धंधा' बन गई है।
फॉर्मेलिन हो, डिटर्जेंट हो, सिंथेटिक रंग हो या नकली खोया — मिलावटखोरों को सब पता है कि अगर कुछ पकड़ा भी गया, तो भीतर ही भीतर मामला सेट हो जाएगा। न रिपोर्ट सामने आएगी, न नाम, न कार्रवाई। और यही वजह है कि वे पूरे साल बिना डर के ज़हर परोसते रहते हैं।
इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि ईमानदार व्यापारी भी शक के दायरे में आ जाते हैं, क्योंकि विभाग कभी साफ-सुथरी दुकानों को 'क्लीन चिट' देकर उनकी प्रतिष्ठा को मजबूत नहीं करता। इससे न केवल आमजन भ्रमित होता है, बल्कि असली और नकली में फर्क कर पाना भी मुश्किल हो जाता है।
जनता अब बेवकूफ नहीं है।
उसे सिर्फ दो किलो मिठाई नष्ट करने का ड्रामा नहीं, पूरे खाद्य नेटवर्क में पारदर्शिता और जवाबदेही चाहिए।
कौन दोषी है? किस दुकान से मिलावट मिली?किस पर जुर्माना लगा? किसका लाइसेंस रद्द हुआ?
जब तक इन सवालों के जवाब सार्वजनिक रूप से नहीं दिए जाएंगे, तब तक यह सारी कार्यवाही सिर्फ 'धोखा' मानी जाएगी।
अगर खाद्य विभाग अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर सकता, तो उसे खुद सवालों के कठघरे में खड़ा होना चाहिए।
यह जनस्वास्थ्य का मामला है, सिर्फ खानापूर्ति का नहीं। लोगों की सेहत, बच्चों की जान, बीमार बुजुर्गों की ज़िन्दगी इससे जुड़ी है। ऐसे में मिलावट करने वाले अपराधी हैं — और उन्हें संरक्षण देने वाले अधिकारी उससे भी बड़े गुनहगार।
अब समय आ गया है कि बलिया में 'नमूना संस्कृति' की जगह 'एक्शन कल्चर' को अपनाया जाए।
हर महीने रूटीन जांच हो, हर रिपोर्ट सार्वजनिक हो,
हर दोषी का नाम उजागर हो, और हर ईमानदार को खुले मंच से सराहा जाए।
तभी जाकर मिठाई में फिर से मिठास लौटेगी — और व्यवस्था में लोगों का भरोसा।