संपादकीय: निठारी फैसला, “कोली को न्याय मिला, पर मासूमों को?”
संपादकीय: रजनीश कुमार

जब मैं आज समाचार देख रहा था और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया, तो मुझे गहरा धक्का लगा। वर्षों से जिस निठारी कांड को देश की सबसे भयावह घटनाओं में गिना जाता रहा, उसी पर आज अदालत ने यह कहा कि ठोस सबूत नहीं मिले — और सुरेंद्र कोली को बरी कर दिया। एक पल के लिए ऐसा लगा, जैसे उन सभी मासूम आत्माओं की पुकार अदालत की दीवारों से टकराकर लौट आई हो।
निठारी… यह नाम अब भी रूह कंपा देता है। कानून के दायरे में यह फैसला बिल्कुल सही हो सकता है, परंतु सवाल यह है कि क्या इस फैसले के साथ न्याय पूरा हुआ?
दिसंबर 2006 में नोएडा के निठारी गांव में कारोबारी मोनिंदर सिंह पंढेर के घर के पीछे नाले से पंद्रह से अधिक बच्चों और महिलाओं के कंकाल मिले थे। महीनों से इलाके से बच्चे गायब हो रहे थे, और जब वह नाला खोदा गया तो सैकड़ों हड्डियाँ उसमें से निकलीं। पूरा देश सिहर गया था। तब कहा गया कि कोली ने बच्चों को बहलाकर बुलाया, उनकी हत्या की और शवों को टुकड़ों में काटकर नाले में फेंक दिया। पुलिस ने उसकी गिरफ्तारी दिखाई, कबूलनामा पेश किया और मामला सीबीआई को सौंप दिया।
लेकिन साल दर साल अदालतों में बहस होती रही। एक-एक कर मामले खुले और बंद होते गए। कई बार कोली और पंढेर को सजा हुई, फिर उसी अदालत ने अगले मुकदमों में बरी कर दिया। आखिर में जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई ठोस सबूत नहीं है और कोली को छोड़ने का आदेश दिया, तब यह स्पष्ट हो गया कि निठारी का सच अदालतों की चारदीवारी में ही गुम हो गया।
अब सवाल यह उठता है कि अगर कोली और पंढेर निर्दोष हैं तो उन पंद्रह बच्चों की हत्या किसने की? क्या वे अपने आप वहां जाकर मर गए थे? कोई न कोई तो था जिसने वह भयावह अपराध किया। वह कौन था? क्यों जांच एजेंसियाँ उसे खोज नहीं सकीं? क्या उनकी जिम्मेदारी यहीं खत्म हो गई कि उन्होंने किसी को गिरफ्तार कर अदालत में खड़ा कर दिया?
पुलिस और सीबीआई की यह विफलता उतनी ही बड़ी है जितनी उन परिवारों की पीड़ा। अदालत का काम सबूतों पर फैसला देना होता है, पर सबूत जुटाने का काम पुलिस और एजेंसियों का होता है। निठारी कांड में यह कड़ी सबसे कमजोर साबित हुई। किसी ने यह नहीं पूछा कि आखिर जांच कहाँ चूक गई। किसी ने सीबीआई से जवाब नहीं मांगा कि इतने बड़े अपराध के बाद भी कोई अपराधी क्यों नहीं मिला।
अगर कोली निर्दोष था तो उसे उन्नीस साल जेल में रखना न्याय नहीं, अन्याय था। और अगर वह निर्दोष था तो उन बच्चों की चीखों का जिम्मेदार कौन है? जिन घरों की चौखट पर अब भी बच्चे के खिलौने रखे हैं, जिन दीवारों पर तस्वीरें लटकी हैं — उन्हें कौन जवाब देगा कि उनका बच्चा कहाँ गया?
न्यायालय ने कोली को न्याय दे दिया, लेकिन निठारी के बच्चों को न्याय कौन देगा? क्या उनकी आत्माएँ आज भी वहीं उस नाले के किनारे भटकती रहेंगी, जहाँ कभी उनके शरीर मिले थे? यह सवाल सिर्फ निठारी के नहीं हैं, यह सवाल हमारे न्याय तंत्र, हमारी जांच एजेंसियों और हमारी सामूहिक संवेदना से भी हैं।
कानून की जीत तो हो गई, पर सच हार गया।
और निठारी की मिट्टी अब भी उन खोए हुए कदमों की गवाही दे रही है, जिनकी पुकार किसी अदालत तक नहीं पहुँच सकी।
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